1857 ki Kranti भारत के इतिहास में एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना है, जिसके बाद से भारत की राजनीति और समाज में कई बदलाव हुए। यह संग्राम ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक जंग थी, जो ब्रिटिश इंडिया कंपनी की अधिकारिता और शोषणकारी नीतियों के खिलाफ थी।
1757 में, प्लासी युद्ध के बाद, ब्रिटिश शासन ने उत्तर भारत में शक्ति एवं सत्ता हासिल करने की ओर अपना पहला कदम बढ़ाया। 1757 के पश्चात् औपनिवेशिक शासन द्वारा अपनाई गई नीतियों और उसके स्वरूप के विरोध के रूप में व्याप्त असंतोष के कारण 1857 का पहला बड़ा एवं व्यापक विद्रोह हुआ, जिसके पश्चात् भारत पर ब्रिटिश शासन की नीतियों में व्यापक परिवर्तन किए गए।
ब्रिटिश विस्तारवादी नीतियों, आर्थिक शोषण और विभिन्न वर्षों में प्रशासन करने के तरीकों में आये नये नये नवाचारों ने भारतीय राज्यों के शासकों, सिपाहियों, जमींदारों, किसानों, व्यापारियों, शिल्पकारों, पंडितों, मौलवियों इत्यादि को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया। ब्रिटिश शासन के प्रति लोगो के मध्य धीमी गति से बढ़ता असंतोष 1857 में एक हिंसक तूफान के रूप में भड़क उठा जिसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला दिया।
हालांकि, 1757-1857 की अवधि शांतिपूर्ण एवं कठिनाई से मुक्त नहीं थी। इस दौरान पूरे देश भर में धार्मिक-राजनीतिक हिंसा, जनजाति विद्रोह, किसान विद्रोह एवं दंगे तथा असैन्य/नागरिक विद्रोह के रूप में छिटपुट लोकप्रिय विद्रोहों की एक लंबी श्रृंखला ने कार्य किया। आदिवासी अंग्रेजों की भूमि बंदोबस्त नीतियों से असंतुष्ट एवं नाराज थे जिसने उनके संयुक्त स्वामित्व परम्परा के विरुद्ध जाकर, सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया। बढ़ी हुई राजस्व मांगों-यहां तक कि अकाल के वर्षों में भी-ने क्रोध को जन्म दिया।
कई बार, स्थानीय महाजनों के विरुद्ध आंदोलन, कंपनी के शासन के विरुद्ध विद्रोह बन गया। धर्म एवं परम्परागत प्रथाओं में अंग्रेजों द्वारा किए इने वाले अनावश्यक हस्तक्षेप ने भी भारतीयों के रोष में वृद्धि की, जिसके परिणामस्वरूप विद्रोह भड़का। ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन के शुरुआती दिनों में उसके विरुद्ध विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से विद्रोह हुए। कुछ आंदोलन 1857 के विद्रोह के पश्चात भी जारी रहे। दक्षिण, पूर्व, पश्चिम एवं पूर्वोत्तर क्षेत्रों में महत्वपूर्ण विद्रोह हुए जिन्हें कंपनी के द्वारा बर्बरतापूर्वक कुचल दिया गया।
1857 Ki Kranti के मुख्य कारण
1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था, परंतु कुछ समय पश्चात्से इसने एक बड़ा रूप ले लिया। विद्रोह का अंत भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ और पूरे भारत पर ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष शासन आरंभ हो गया। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित है जिनके कारण विद्रोह हुआ-
1 – आर्थिक कारण
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत के उद्योग धंधों को नष्ट कर दिया तथा श्रमिकों से बलपूर्वक अधिक से अधिक श्रम कराकर उन्हें कम पारिश्रमिक देना प्रारम्भ किया। इसके अतिरिक्त अकाल और बाढ़ की स्थिति में भारतीयों की किसी भी प्रकार की सहायता नहीं की जाती थी और अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता था।
सन 1813 में कंपनी ने एकतरफा मुक्त व्यापार की नीति अपना ली। इसके अंतर्गत ब्रिटिश व्यापारियों को आयात करने की पूरी छूट मिल गयी। परम्परागत तकनीक से बनी हुई भारतीय वस्तुएं इसके सामने टिक नहीं सकीं जिसके कारण भारतीय शहरी हस्तशिल्प व्यापार को बहुत क्षति हुई। भारतीय व्यापार एवं व्यापारी वर्ग को ब्रिटिश शासन द्वारा जानबूझकर बर्बाद कर दिया गया। भारत में बनी चीजों पर उच्च कर लगाए गए। ब्रिटेन में बनी वस्तुओं पर निम्न कर लगाकर उन्हें भारत में आयात किया गया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक, भारत से कपास एवं सिल्क के कपड़ों का निर्यात लगभग समाप्त हो गया। मुक्त व्यापार एवं ब्रिटेन से आने वाली मशीन निर्मित वस्तुओं को भारत मे सस्ती दर पर बेचकर भारतीय विनिर्माण उद्योग को समाप्त कर दिया गया।
1857 Ki Kranti के पीछे कई आर्थिक कारण थे। इस विद्रोह को “सिपाही विद्रोह” या “भारतीय स्वतंत्रता संग्राम” के रूप में भी जाना जाता है। इसमें अंग्रेजों के उत्पीड़न, दासता और अर्थव्यवस्था से संबंधित कई मुद्दे शामिल थे। 1857 के विद्रोह के उत्पन्न होने के निम्नलिखित आर्थिक कारण थे –
रैयतवाड़ी और महलवाड़ी व्यवस्था
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में रैयतवाड़ी और महलवाड़ी व्यवस्था लागू की गई थी, जिसके कारण भारत के किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता था। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय हो गयी।
भेदभावपूर्ण टैरिफ नीति एवं ऊर्जा का शोषण
ब्रिटिश शासन के दौरान उसने भारत से ऊर्जा का अधिक से अधिक शोषण किया। अंग्रेजों ने भारत की भूमि, वनों आदि को अपना लाभ कमाने के लिए शोषण किया। उदाहरण के लिए 1769 में Court Of Director ने भारत मे नोटिस भेजा कि India में Raw Material ज्यादा से ज्यादा उत्पन्न किये जायें और उन Raw Materials को ब्रिटेन बेजा जाए जिससे वह पर उससे वस्तुए बनाकर वापस भारत भेजें, जहाँ उनको ऊंची दरों पर बेचकर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाया जा सके।
इसकी वजह से भारतीय हस्तशिल्प को बहुत नुकसान हुआ। भारतीय हस्तशिल्प उद्योग नष्ट ही गया और घरेलू कारीगर बर्बाद हो गए।
उच्च कर व्यवस्था
अंग्रेजों ने भारत में नई कर व्यवस्था लागू की, जिसके द्वारा अन्यायपूर्ण और उच्च कर लगाए जाते थे। दोषपूर्ण कर व्यवस्था के चलते ब्रिटिश शासन द्वारा किसानों और मध्यवर्ग का अधिक से अधिक शोषण किया। प्रमुख रूप से 3 प्रकार के कर लगाए गए थे –
कृषि क्षेत्र में सुविधाओं और नई तकनीक के अभाव से कृषि भूमि की उत्पादन क्षमता निरन्तर कम होने लगी। फलस्वरूप खाद्यान्नों की कमी और अकाल की स्थिति व्याप्त रहने लगी। ब्रिटिश सरकार की अत्यधिक लगान नीति के कारण उत्तरी भारत के अधिकतर क्षेत्रों के जमींदारों में आक्रोश व्याप्त था, क्योंकि लगान की राशि बहुत ज्यादा थी और इसमें उस समय वृद्धि की गई थी जबकि अर्थव्यवस्था में प्राकृतिक विपदाएं व्याप्त थी।
आर्थिक असमानता
अंग्रेजों के द्वारा भारत में आर्थिक असमानता बढ़ाई गई थी। उन्होंने दक्षिण और पूर्वी भारत को अपने लाभ के लिए शोषित किया था। यही कारण है कि भारत के लोगों की आर्थिक स्थिति बिगड़ी थी।
मध्य एवं उच्च वर्ग को प्रशासन में उच्च पदों से दूर रखना
मध्य एवं उच्च वर्ग को ब्रिटिश प्रशासन में उच्च पदों से दूर रखा गया। जिसके कारण इन वर्गों में धीरे धीरे रोष बढ़ता गया जो 1857 Ki Kranti के रूप में उभरा। कानून और प्रशासन के द्वारा मनमाने तरीके से शासन चलाया जाने लगा जो भृष्ट और उत्पीड़न से भरा था।
2 – राजनैतिक कारण
सहायक संधि ( गठबंधन ) –
लॉर्ड वेलेजली अपनी सहायक संधि की प्रणाली के लिए प्रसिद्ध है। उसने इस संधि का प्रयोग भारतीय राज्यों को कम्पनी के राजनीतिक प्रभुत्व में लाने के लिए किया। सहायक संधि की इस प्रणाली का अस्तित्व वेलेजली के आगमन से पूर्व भी था। सम्भवतः फ्रांसीसी गवर्नर जनरल डूप्ले प्रथम यूरोपीय था, जिसने उक्त प्रणाली के अनुसार अपनी सेनाएं, किराए पर भारतीय राजाओं को दी। प्रथम सहायक संधि 1765 में कम्पनी ने अवध के नवाब के साथ की थी। वेलेजली के समय इस प्रणाली का विकास अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। इस प्रणाली के द्वारा लॉर्ड वेलेजली ने भारत के एक विस्तृत भू-भाग पर कब्जा कर लिया। यह सहायक संधि प्राय: निम्नलिखित शर्तों के आधार पर की जाती थी-
- भारतीय राजाओं के विदेशी संबंध कम्पनी के माध्यम से संचालित होते थे। बड़े राज्यों को अंग्रेजी अधिकारियों के प्रभुत्व वाली एक सेना अपने प्रदेश में रखनी होती थी। इस सेना का उद्देश्य सार्वजनिक शांति और व्यवस्था बनाए रखना था। इस सेना के लिए राजा को एक “पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न प्रदेश” कम्पनी को देना होता था। छोटे राज्यों को इसके बदले नकद धन का भुगतान करना पड़ता था।
- राज्य की राजधानी में एक अंग्रेजी रेजीडेन्ट को रखना आवश्यक होता था।
- राज्य कम्पनी की पूर्व अनुमति के बिना किसी यूरोपीय व्यक्ति को अपनी सेवा में नहीं रख सकते थे।
- कम्पनी राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वचन देती थी।
- कम्पनी राज्य की प्रत्येक प्रकार के शत्रुओं से रक्षा करती थी।
सहायक संधि स्वीकार करने वाले राज्य थे –
- हैदराबाद (सितम्बर, 1778 और 1800),
- मैसूर (1799),
- तंजौर (अक्टूबर, 1799),
- अवध (नवम्बर, 1801),
- पेशवा (दिसम्बर, 1801),
- बराड़ के भोंसले (दिसम्बर, 1803),
- सिंधिया (फरवरी, 1804) तथा जोधपुर, जयपुर, मच्छेड़ी, बूंदी और भरतपुर।
भारतीय राज्यों को हानियां – यह संधि निम्नलिखित प्रकार से भारतीय राज्यों के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुई-
- इस संधि द्वारा अपने विदेशी संबंधों को कम्पनी के सुपुर्द कर भारतीय राजाओं ने अपनी स्वतंत्रता खो दी।
- राज्य की राजधानी में स्थित अंग्रेज रेजीडेन्ट के माध्यम से कम्पनी ने इन राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया।
- अंग्रेजी सेना की उपस्थिति के कारण भारतीय जनता अपने निर्बल और उत्पीड़क राजा के विरुद्ध विद्रोह नहीं कर सकती थी।
- इस संधि द्वारा कम्पनी ने राज्य की आय का एक-तिहाई भाग आर्थिक सहायता के रूप में प्राप्त करना आरंभ कर दिया। इतनी बड़ी राशि को अदा
करते-करते भारतीय राजा शीघ्र ही दीवालिया हो गए। - धन न देने की स्थिति में प्रदेश देने पड़ते थे। कई बार तो 40 लाख रुपयों के बदले कम्पनी ने 62 लाख रुपये वार्षिक कर वाले प्रदेश पर कब्जा कर लिया।
II. डलहौजी की व्यपगत नीति-डलहौजी के “व्यपगत के सिद्धांत” (Doc-trine of Lapse) के कारण हिन्दू राजाओं से पुत्र गोद लेने के अधिकार को छीन लिया
गया। किसी भी विवादास्पद मामले में कंपनी आवश्यक रूप से हस्तक्षेप करती थी और उसका निर्णय मानना पड़ता था तथा कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स का फैसला अंतिम था।
व्यपगत सिद्धांत – डलहौजी की नीति
साम्राज्यवादी नीति के तहत् विभिन्न राज्यों का विलय कर लिया गया था। पंजाब और सिक्किम का विजय के आधार पर तथा अन्य का जैसे- सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बघाट, उदयपुर, झांसी और नागपुर का व्यपगत सिद्धांत के अंतर्गत विलय किया गया था। अवध को शासितों के हित में विलय किया गया। मुसलमानों की भावनाओं को भी अंग्रेजी नीति के कारण गहरी चोट पहुंची थी। डलहौजी ने यद्यपि शाहजादा फकीरुद्दीन के उत्तराधिकार को मान्यता प्रदान कर दी थी, परंतु उस पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए। फकीरुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् 1856में लार्ड कैनिंग ने घोषणा की कि नवीन उत्तराधिकारी शाहजादे को राजकीय उपाधि के साथ मुगल महल भी छोड़ना होगा। मुगल सम्राट बहादुरशाह के जीवनकाल में भी अंग्रेजों ने उसका पर्याप्त अपमान किया। मुगल सम्राट को अंग्रेज अफसरों द्वारा दी जाने वाली भेंट बंद कर दी गई। अंतिम पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहब की 80,000 पौण्ड की वार्षिक पेंशन भी समाप्त कर दी गई।
प्रतिज्ञायों और वादों के साथ उत्पन्न हुई लोभी नीति के कारण राजनीतिक प्रतिष्ठा में कमी
जब किसी देशी रियासत का विलय अंग्रेजी राज्य में किया जाता था तो रियासत के राजा की पदच्युति के साथ-साथ जनता को प्राप्त होने वाले उच्च प्रशासनिक पद भी कंपनी को मिलते थे। इस कारण समाज के उच्च वर्गों में कटुता की भावनाएं उत्पन्न होने लगीं। अंग्रेजों द्वारा लागू नई न्याय प्रणाली के कारण भी लोगों में तीखी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हुई क्योंकि भारत में जाति प्रथा पूर्व से ही बलवती थी और नई न्याय व्यवस्था में सबको समान समझा जाता था तथा यह एक लंबी प्रक्रिया थी।
- सिंध पर कब्जा कर लेना
- प्रभावी नियंत्रण – 1813 के बाद शुरू
- व्यापार और वाणिज्य नीतियों के द्वारा डाहि राज्यो के हितों को बाधित करना
- नई नई नीति लागू करना-
- मैसूर और सिंध के मामले में प्रत्यक्ष अधिग्रहण –
- अवध की महत्वपूर्ण भूमिका –
- शाही उपाधियों का उन्मूलन
3 – सैन्य कारण
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के प्रसार से सैनिकों की सेवा शर्तों पर प्रतिकूल प्रभाव हुआ। भारतीय सैनिकों का वेतन बहुत कम था तथा उनकी पदोन्नति का मार्ग भी अवरुद्ध था।
जिस पद पर भारतीय सैनिक भर्ती होता था उसी पद पर वह सेवानिवृत्त भी होता था। भारतीय सैनिकों की योग्यता पर भी सरकार को विश्वास नहीं था।
1856 में केनिंग की सरकार ने एक अधिनियम पास किया जिससे सैनिकों में निराशा बढ़ी। इस कानून के अंतर्गत सभी भावी सैनिकों को यह स्वीकार करना होता था कि जहां कहीं भी सरकार चाहेगी, उन्हें वहां कार्य करना होगा। भारतीय समाज में समुद्र पार जाना धर्म के विरुद्ध माना जाता था। 1856 में अवध का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय करने के बाद अवध की रियासती सेना भंग कर दी गई।
यह कोई पहला सैन्य विद्रोह नही था। इससे पहले भी ब्रिटिश शासन में कई जगह पर कई बार सैनिको द्वारा विद्रोह पहले भिनकये गए थे। जैसे
- 1806 में वैलोर में क्रांति हुई
- 1824 में बैरकपुर में विद्रोह हुआ। यह विद्रोह 47वी0 Native Infantry द्वारा किया गया। उस समय Anglo Verma युद्ध चल रहा था।
- 1842 में फिरोजपुर में विद्रोह हुआ।
सैनिको की भी अपनी समस्याये थी जिनकी वजह से 1857 ki Kranti हुई – जैसे
- सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम 1856 के प्रावधानों के अनुसार सैनिको की प्रवासी तैनाती किये जाना।
- 1854 का डाकघर अधिनियम
- समान रैंक के बीच वेतन भेदभाव
- भत्ता देने से इंकार
- धार्मिक पहचान संबंधी संकट
- वर्दीधारी किसान
- भारतीय सैनिको को हीन समझना एवं प्रायः अपमान किये जाना।
4 – प्रशासनिक कारण
भारतीय रियासतों के अंग्रेजी साम्राज्य में विलय के बाद भारतीय अभिजात वर्ग अब पूर्व में प्राप्त पदों और शक्तियों से वंचित हो गया, क्योंकि ऊंचे पदों पर अब केवल अंग्रेज ही नियुक्त होते थे। भारतीयों के पास आवश्यक योग्यताओं के बावजूद उन्हें छोटे पदों पर ही नियुक्त किया जाता था।
- कृषकों द्वारा भूमि-कर व्यवस्था के विरुद्ध जब कभी भी प्रतिक्रिया की जाती थी तो इसके लिए सेना का सहारा लिया जाता था।
- बहुत-से तालुकदारों और वंशानुगत भूमिपतियों से उनके पद और अधिकार छीन लिए गए। बहुत-सी भूमि जब्त कर उसकी नीलामी कर दी गई। इससे भूमि ऐसे सिद्धांतहीन साहूकारों व जमींदारों के पास चली गयी जो प्रायः लोगों का शोषण करते थे।
- अंग्रेज व्यापारिक लाभ के उद्देश्य से भारत आए थे। भारत के कच्चे माल का निर्यात कर निर्मित माल भारत को आयात किया जाता था। इस प्रकार भारत को तैयार माल की मंडी बना दिया गया था।
- कंपनी के प्रशासन में व्यापक भ्रष्टाचार
- जटिल न्यायिक प्रणाली
- ब्रिटिश शासन के द्वारा विदेशी और पराया चरित्र प्रस्तुत किये जाना
- प्रत्येक क्षेत्र में कुशासन
- पक्षपात पूर्ण व्यवहार
5 – सामाजिक कारण
भारतीयों के प्रति कठोर नीतियां अपनाई जाती थीं तथा अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते थे।
पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव धीरे-धीरे भारतीय समाज पर आने लगा था। तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़ियों, अंध-विश्वासों और प्रथाओं को सुधारने हेतु यद्यपि अंग्रेजी सरकार ने प्रयास किए, परंतु ब्रिटिश सरकार की अनेक अन्यायपूर्ण नीतियों के कारण, भारतीय अपने सामाजिक जीवन में विदेशी जाति का हस्तक्षेप नहीं सह सके और उनके मन में यह धारणा दृढ़ हो चुकी थी कि अंग्रेज सामाजिक हस्तक्षेप द्वारा भारतीय सभ्यता को नष्ट करना चाहते हैं।
1829ई. में विलियम बैंटिक द्वारा सती प्रथा के उन्मूलन हेतु पास किए कानून का बंगाल में व्यापक स्तर पर विरोध किया गया।
डलहौजी द्वारा 1850 में यह नियम पास किया गया कि धर्म परिवर्तन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपनी पैतृक सम्पत्ति को प्राप्त करने का उतना ही अधिकारी होगा जितना कि वह धर्म परिवर्तन करने से पूर्व था। 1867 में डलहौजी द्वारा विधवा विवाह के समर्थन में कानून बनाया गया। इस में प्रकार सुधार की आड़ में अंग्रेजों ने ईसाई धर्म और संस्कृति का प्रचार किया।
1813 ई. में जब ब्रिटिश सरकार ने ईसाई पादरियों को धर्म प्रचार के लिए भारत आने की अनुमति दी तो भारतीय जनता की भावनाओं को काफी ठेस पहुंची।
मैकाले द्वारा पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता के संबंध में दिए गए वक्तव्यों तथा पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के समर्थन का भी भारतीयों पर प्रतिकूल असर पड़ा।
1850 में पास किए गए धार्मिक अयोग्यता अधिनियम (Religious Disability Act) द्वारा हिन्दू रीति रिवाजों में परिवर्तन लाया गया। इसके अनुसार धार्मिक परिवर्तन के बाद भी पुत्र का पिता की सम्पत्ति पर अधिकार पूर्ववत् बना रहा।
भारतीय सैनिकों को भी ईसाई बनने की प्रेरणा दी जाती थी तथा ईसाई धर्म स्वीकार कर लेने वालों को पर्याप्त सुविधाएं दी जाती थीं। हिन्दू देवी-देवताओं का अंग्रेजों द्वारा उपहास किया जाता था तथा मूर्ति पूजा को बुरा कहा जाता था।
- धर्मांतरण का खतरा
- सती प्रथा उन्मूलन
- धार्मिक स्कूलों पर कर लगाने की नीति
- ईसाई धर्म मे जबरदस्ती धर्मांतरण
- हिन्दू सभ्यता के बारे में नकारात्मक प्रतिक्रिया और हिन्दू धर्म को बर्बर कहा जाना
6- बाहय घटनाओ का प्रभाव
- प्रथम अफ़ग़ान युध्द
- ब्रिटिशों की अजेयता का मिथ टूटना
- आदिवासी विद्रोह – संथाल विद्रोह
- मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया
7 – तात्कालिक कारण
उपर्युक्त विभिन्न असंतोषजनक घटनाओं से संबंधित बारूद के ढेर में चिंगारी का काम कारतूसों की घटना ने किया। 1856 में ब्रिटिश सरकार ने नई और अपेक्षाकृत अच्छी एनफील्ड राइफल (New Enfield Rifle) के प्रयोग का निश्चय किया। इस राइफल में प्रयुक्त किए जाने वाले कारतूसों को बनाने में गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग किया गया था तथा उनका ऊपरी हिस्सा प्रयोग से पहले मुंह से काटना होता था। जब सैनिकों को पता चला कि कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी, धर्म भ्रष्ट करने की नीति के तहत् प्रयुक्त की गई है तो उन्होंने इनके प्रयोग से इंकार कर दिया। जब उन्हें कारतूसों का प्रयोग करने के लिए विवश किया जाने लगा तो सर्वप्रथम कलकत्ता के निकट बैरकपुर छावनी में मंगल पाण्डे ने विद्रोह कर दिया जो धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया और 1857 के विद्रोह के रूप में सामने आया।
- चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग पर जोर
- आटे में हड्डी की धूल के मिश्रण मिलने की सूचना
- हिन्दू मुस्लिम की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना
विद्रोह की शुरुआत
बैरकपुर – सर्वप्रथम 29 मार्च, 1857 को विद्रोह का प्रारम्भ कलकत्ता के निकट बैरकपुर की छावनी से हुआ। भारतीय सैनिकों ने गाय और सुअर की चर्बी से तैयार एनफील्ड राइफल के लिए प्रयुक्त होने वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इंकार कर दिया। परंतु जब सरकार ने इनके प्रयोग के लिए सैनिकों पर दबाव डाला तो सैनिक भड़क उठे। अंग्रेजी सरकार के इस दबाव को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही सैनिकों ने अपने धर्म पर प्रहार समझा। इसी घटना से प्रेरित होकर सैनिक मंगल पांडे ने अपने एडजुटेंट (Adjutant) पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी। 34वीं नेटिव इंफैन्ट्री रेजिमेन्ट तोड़ दी गई और अंग्रेज अधिकारी की हत्या के सिलसिले में मंगल पाण्डे और ईश्वर पांण्डे को फांसी की सजा दे दी गई। इन दोनों सैनिकों की मौत की खबर ने आग में घी का काम किया और 10 मई, 1857ई. को इस विद्रोह ने भयंकर रूप धारण कर लिया।
मेरठ – 9 मई, 1857 को मेरठ में सैनिकों ने कारतूसों के प्रयोग से इंकार कर दिया। इन सभी सैनिकों को सैनिक न्यायालय ने 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई। 10 मई को मेरठ में सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया और अपने बंदी साथियों को मुक्त करा कर दिल्ली को रवाना हो गए।
दिल्ली में विद्रोह– 12 मई को विद्रोहियों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। बहादुरशाह द्वितीय ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया तथा लाल किले पर अधिकार कर लिया। इन सफलताओं से भारतीय सैनिकों का उत्साह बढ़ा और विद्रोह की आग समस्त उत्तरी और मध्य भारत में फैल गई। इस स्थिति में अंग्रेजों के लिए दिल्ली पर पुनः अधिकार आवश्यक हो गया। अतः अंग्रेजों और भारतीयों के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ तथा 20 सितम्बर को अंग्रेज दिल्ली पर पुनः अधिकार करने में सफल हो पाये।
प्रसार
29 मार्च 1857 को बैरकपुर की 34 वी0 इन्फेंट्री के सैनिक मंगल पांडेय द्वारा विद्रोह की शुरुआत की गई। उसने गाय और सुअर की चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया। विरोधस्वरूप उसने कई अग्रेज अधिकारियों का वध कर दिया।इसके बाद उसकी बटालियन को भंग कर दिया गया। इस विरोध के कारण मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को फांसी पर चढ़ा दिया गया। 24 अप्रैल 1857 को मेरठ में 90 घुड़सवारों में से 85 ने कारतूसों का प्रयोग करने से मना कर दिया, जिसके लिये उन सभी 85 सैनिको का Court Marshal कर दिया गया और उन्हें 5 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई।
9 मई, 1857 को मेरठ में 85 भारतीय सैनिकों ने नए राइफल का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। जिसकी वजह से विरोध करने वाले सैनिकों को दस-दस वर्ष की सज़ा दी गई। 10 मई 1857 को मेरठ में 20 वी0 नेटिव इन्फेंट्री के पैदल सैनिको ने विद्रोह की शुरुआत की, उसके बाद अन्य बटालियनों ने भी विद्रोह शुरू कर दिया।
10 मई 1857 को क्रांतिकारियों ने दिल्ली की तरफ कूच किया। दिल्ली पहुंचकर लोगो ने बहादुरशाह को अपना नेता चुन लिया। इस तरह लोगो मे हिन्दू मुस्लिम एकता को बल मिला। धीरे धीरे लोगो का जुड़ाव आंदोलन से होने लगा।
उसी समय फिरोजशाह द्वारा आज़मगढ़ उद्घोषणा की गई। चूंकि यह एक राजनीतिक घोषणा थी फिर भी इसने विद्रोह को बढ़ाने में सहायता की। इस घोषणा के अनुसार –
- जमींदारों के अधिकारों की गारंटी दी गई।
- सैनिको को आकर्षक वेतन की गारंटी
व्यापारियों को वचन दिया गया कि जब बादशाही शासन बहाल हो जाएगा तब सभी वस्तुओं के आवागमन के लिये ‘सरकारी स्टीम जहाजों’ और स्टीम कैरिज का उपयोग मुफ्त में उपलब्ध कराया जाएगा।
इस तरह लोगो को ज्यादा से ज्यादा विद्रोह से जुड़ने के लिये प्रेरित किया गया। लेकिन इस प्रकार के प्रलोभनों का ज्यादा प्रभाव नही पड़ सका।
विद्रोह की प्रकृति
1857 Ki Kranti के बारे में इतिहासकारों के मत
मत | इतिहासकार |
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यह पूर्णतया सिपाही विद्रोह था | सर जॉन लारेन्स, सीले |
यह स्वतन्त्रता संग्राम था | डॉ० ईश्वरी प्रसाद, कार्ल मार्क्स |
एक सामन्तवादी प्रतिक्रिया थी | मिस्टर के० |
जनक्रान्ति थी | डॉ० राम विलास शर्मा |
यह राष्ट्रीय विद्रोह था | डिजरायली |
यह अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू-मुसलमानों का षड्यंत्र था | जेम्स आउन्ट्रम, डब्ल्यू० टेलर |
यह ईसाई धर्म के विरुद्ध एक धर्म युद्ध था | एल० आर० रीज |
यह धर्म की रक्षा के लिए शुरू किया लेकिन स्वतंत्रता के युद्ध के रूप में परिवर्तित हो गया | सुरेंद्रनाथ सेन |
यह सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष था | टी० आर० होम्स |
यह विद्रोह राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए सुनियोजित युद्ध था | वीर सावरकर, अशोक मेहता |
1857 का विद्रोह स्वतन्त्रता संग्राम नहीं था | आर० सी० मजूमदार |
1857 का विद्रोह केवल एक सैनिक विद्रोह था, जिसका तात्कालिक कारण चर्बी युक्त कारतूस था | पी० राबर्ट्स |
यह सामंती प्रमुखों के नेतृत्व मे एक सामंती प्रकोप था | जवाहर लाल नेहरू |
Note – सर सैयद अहमद या → Book – असवाद -ए-बगावत-ए-हिंद में कहा कि अंग्रेज ही इसके लिए जिम्मेदार थे ।
कुल मिलकर तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय संग्राम न तो प्रथम है, न ही राष्ट्रीय है और न ही स्वतंत्रता संग्राम है ।
विद्रोह का स्वरूप – नियोजित या अनियोजित
1857 का विद्रोह अपनी तरह का पहला आम विद्रोह था जिसमे जनता के बहुत बड़े समूह ने भाग लिया था। लेकिन फिर भी यह विद्रोह सफल नही हो सका । क्या ऐसा वास्तव में था कि यह विद्रोह सफल था या नही। इसकी जांच इसके स्वरूप से की जा सकती है कि यह वास्तव में एक पूर्व नियोजित विद्रोह था या फिर अनायास ही उत्पन्न हुए कारणों से फैला था। इस विद्रोह की कई बातें ऐसी है जो इसके नियोजित रूप को दर्शाती है जबकि कई बातें इसको अनियोजित सिद्ध करती है
नियोजत | अनियोजित |
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विद्रोहियों द्वारा रोटी और लाल कमल को प्रतीक माना गया। | कोई भी योजना नही बनाई गई थी। |
सन्यासियों, फकीरों और मदारियों ने घूम घूम कर विद्रोह का प्रचार किया। | विद्रोह के पहले या बाद में कागज का ऐसा कोई टुकड़ा नही मिला जो रह साबित कर सके कि विद्रोह संघटित था। |
कई रेजिमेंट गुप्त संघटनो से जुड़े थे। 31 मई 1857 को विद्रोह के दिन के रूप में चुना गया। | इसका कोई भी गवाह सामने नही आया कि विद्रोह पूर्व नियोजित था |
फैज़ाबाद के मौलबी अहमदशाह और नाना साहिब ने अग्रणी भूमिका निभाई। | इनकी भूमिका विद्रोह में संयोगवश ही थी |
इस प्रकार पूरी तरह से यह नही कहा जा सकता कि विदोह नियोजित था और ना ही यह कहा जा सकता कि विद्रोह अनियोजित था। इस विद्रोह के दोनों ही स्वरूप दिखाई देते है।
1857 के विद्रोह से जुड़े महत्वपूर्ण नेता एवं ब्रिटिश अधिकारी
स्थान | महत्वपूर्ण नेता | ब्रिटिश अधिकारी |
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दिल्ली | बहादुरशाह द्वितीय, जनरल बख्त खान | लेफ्टिनेंट विलोवी, जॉन निकोलसन, लेफ्टिनेंट हडसन |
लखनऊ | बेगम हजरत महल, बिजरिस कादिर, अहमदुल्लाह | हेनरी लॉरेंस, सर कोलिन कैम्पबेल, ब्रिगेडियर इग्लिस, हेनरी हेवलॉक |
कानपुर | नाना साहेब, राव साहेब, तात्या टोपे, अज़ीमुल्ला खां | सर ह्यू व्हीलर, सर कोलिन कैम्पबेल |
झांसी | रानी लक्ष्मीबाई | सर ह्यू रोज |
जगदीशपुर | कुंवर सिंह, अमर सिंह | मेजर विलियम टेलर |
बनारस | कर्नल जेम्स नील | |
फैज़ाबाद | मौलबी अहमदुल्लाह शाह | जनरल रेनार्ड |
बागपत | शाहमल | |
बरेली | खान बहादुर खान | विन्सेंट आयर |
पटना | मौलबी पीर अली |
विद्रोह का दमन
- 1859 के अंत तक दबा दिया।
- जॉन निकलसन ने लड़कर दिल्ली पर कब्जा कर लिया
- बहादुरशाह को कैद करके रंगून भेज दिया।
- विद्रोह के सभी प्रमुख नेताओं को हरा दिया गया।
असफलता के कारण
- पूर्ण राष्ट्रवाद का अभाव
- प्रादेशिक विस्तार सीमित था
- बड़े जमींदार बाढ़ में बांध की तरह कार्य किए
- कुछ वर्ग और समूह शामिल नही हुए
- साहूकारों और व्यापारियों ने सहयोग नही दिया
- समन्वय की कमी
- सिपाही भी संगठित नहीं थे
- विद्रोह के बाद का दृष्टिकोण निर्धारित नही था।
- समान कार्ययोजना नहीं थी और कोई आधिकारिक प्रमुख नही था।
- कुल क्षेत्रफल के 1/4 से अधिक और कुल आबादी 10 वे हिस्से से अधिक लोग प्रभावित नहीं हुए थे।
- आधुनिक शिक्षा प्राप्त भारतीयों ने इसे एक पिछडे दृष्टिकोण के रूप में देखा उनको भरोसा था कि अंग्रेज आधुनिक युग लायेंगे । इसलिये वे तटस्थ रहे थे और विद्रोह से अपने आप को दूर रखा था।
विद्रोह का प्रभाव
- इस विद्रोह ने अंग्रेजी राज की नींव हिला कर रख दी
यह सिद्ध हो गया कि कंपनी, जो व्यापारिक संगठन था, वह भारतीय प्रशासन पर काबू पाने में सक्षम नही था
विद्रोह ने कंपनी का खोखलापन उजागर कर दिया । इसलिए ब्रिटिश संसद द्वारा कंपनी के शासन को समाप्त करके प्रत्यक्ष ब्रिटिश सरकार स्थापित की। - वास्तव में कंपनी पर प्रतिबंध तो शुरू से ही लगते आ रहे थे। 1773 से पहली बार कंपनी पर प्रतिबन्ध लगाना शुरू कर दिया। 1784, 1793, 1813, 1833, 1853 आदि चार्टर एक्ट्स के द्वारा कंपनी के अधिकार धीरे धीरे कम किये जाते रहे।
प्रत्यक्ष परिणाम
- विद्रोह के बाद भारत मे ईस्ट इंडिया कंपनी के नियम को समाप्त कर दिया गया ।
- अधिकारों को कंपनी से लेकर ब्रिटिश क्राउन को दे दिया गया।
2 Aug 1858 को पारित उक्त अधिनियम को ‘ भारत में बेहतर सरकार के लिए अधिनियम/भारत सरकार अधिनियम – 1858 कहा गया
1 Nov 1858 को एक उद्घोषणा द्वारा महारानी विक्टोरिया ने सीधे प्रशासन की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली। (इलाहाबाद से ) - इस समय भारतकी 3 राजधानियों थी
1- कलकत्ता 2 – दिल्ली 3 – इलाहाबाद ( 1 दिन के लिए 1 Nov 1858 को )
1857 के विद्रोह पर लिखी गई पुस्तकें
- विनायक दामोदर सावरकर द्वारा द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस
- पूरन चंद जोशी द्वारा रिबेलियन, 1857 ए सिम्पोज़िअम
- जॉर्ज ब्रूस मल्लेसन द्वारा द इंडियन म्यूटिनी ऑफ 1857
- क्रिस्टोफर हिबर्ट द्वारा ग्रेट म्यूटिनी
- इकबाल हुसैन द्वारा रिलिजन एंड आइडियोलॉजी ऑफ द रिबेल ऑफ 1857
- खान मोहम्मद सादिक खान द्वारा एक्सकवेशन ऑफ ट्रूथ: अनसुंग हीरोज़ ऑफ 1857 वार ऑफ इंडिपेंडेंस