बौद्ध धर्म का इतिहास-Bauddh dharm ka itihas
बौद्ध धर्म का इतिहास-Bauddh dharm ka itihas- बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक/संस्थापक महात्मा बुद्ध थे । बुद्ध का अर्थ ‘प्रकाशमान’ अथवा’ जाग्रत’ होता है । उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यों के गणराजा थे । बुद्ध का जन्म शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु के समीप लुंबिनी में 563ई.पू. में हुआ था । इनकी माता महामाया देवी, कोलिय गणराज्य की राजकुमारी थीं । इनके जन्म के सातवें दिन ही इनकी माता की मृत्यु हो गई । तत्पश्चात् इनका पालन- पोषण इनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया । गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था । उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में ‘यशोधरा’ से हुआ। यशोधरा को गोप, बिम्ब, मदकच्छना आदि कई नाम थे। उनके एक पुत्र जन्मा, जिसका नाम राहुल था। सारथी ‘चन्ना” के साथ रथ पर सैर करते हुए उन्होंने चार घटनाओं (Four Great Things)- बुढ़ापा, रोग, मृत्यु और संन्यास को देखकर गृहत्याग कर सत्य ज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया। उस समय उनकी आयु 29 वर्ष थी। इस गृहत्याग को बौद्ध-ग्रंथों में ‘महाभिनिष्क्रमण’ की संज्ञा दी गई है। ज्ञान-प्राप्ति हेतु भ्रमण करते हुए वे सर्वप्रथम सांख्य-दर्शन के आचार्य अलार कलाम के पास पहुँचे। उरुवेला (बोध-गया) में उन्हें पाँच ब्राह्मण संन्यासी मिले लेकिन सिद्धार्थ द्वारा अन्न-जल ग्रहण करने के सिद्धांत के समर्थन को लेकर उनसे मतभेद हो गया था। विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए उन्हें 35 वर्ष की आयु में “गया” में “वट” के वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ। तब वे बुद्ध कहलाये। इसके पश्चात् उन्होंने विभिन्न स्थानों की यात्रा की और ज्ञान का प्रचार किया। उरूवेला से वे सर्वप्रथम ऋषिपत्तन (सारनाथ) आये। यहाँ उन्होंने 5 ब्राह्मण संन्यासियों को अपना प्रथम उपदेश दिया। इसे इतिहास में धर्मचक्रप्रवर्तन (धम्मचक्कावत्तन) की संज्ञा दी गई। 487-86 ई.पू. कुशीनगर में महात्मा बुद्ध की मृत्यु हो गयी। उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनका जन्म, ज्ञान प्राप्ति और मृत्यु (महापरिनिर्वाण) “वैशाख की पूर्णिमा” को ही हुआ था।
गौतम बुद्ध जीवन परिचय जन्म-
- 563 ई. पू. जन्म स्थान- लुंबिनी( नेपाल)
- बचपन का नाम- सिद्धार्थ( गोत्रीय अभिधान- गौतम)
- पिता का नाम- शुद्धोधन( कपिलवस्तु के शाक्य गण के प्रधान)
- माता का नाम- मायादेवी अथवा महामाया( कोलिय गणराज्य की कन्या)
- पालन- पोषण- मौसी प्रजापति गौतमी द्वारा
- पत्नी का नाम- यशोधरा( अन्य नाम गोपा, बिंबा, भद्रकच्छा )
- 16 वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ का विवाह शाक्य कुल की कन्या यशोधरा से हुआ। सिद्धार्थ से यशोधरा को एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल था
- पुत्र का नाम- राहुल
- घोड़े का नाम- कंथक
- सारथी का नाम- चारण
- मुत्यु- 483 ई.पू. (मल्लों की राजधानी कुशीनगर में )
गौतम बुद्ध के जीवन संबंधी चार दृश्य अत्यंत प्रसिद्ध हैं, जिन्हें देखकर उनके मन में वैराग्य की भावना उठी-
- वृद्ध व्यक्ति
- मृत व्यक्ति
- बीमार व्यक्ति
- संन्यासी ( प्रसन्न मुद्रा में )
बुद्ध के जीवन से संबंधित बौद्ध धर्म के प्रतीक
बुद्ध के जीवन से संबंधित बौद्ध धर्म के प्रतीक | |
घटना | चिह्न/प्रतीक |
जन्म | कमल व साँड |
गृहत्याग | घोड़ा |
ज्ञान | पीपल (बोधि) वृक्ष |
निर्वाण | पद चिह्न |
मृत्यु (महापरिनिर्वाण) | स्तूप |
सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में सांसारिक समस्याओं से व्यथित होकर गृह त्याग दिया। इसको बौद्ध धर्म में महाभिनिष्क्रमण कहा गया है। बुद्ध सर्वप्रथम अनुपिय नामक आम्र उद्यान में कुछ दिन रुके। वैशाली के समीप उनकी मुलाकात सांख्य दर्शन के दार्शनिक आचार्य अलार कलाम तथा राजगृह के समीप धर्माचार्य रुद्रक रामपुत्र से हुई। ये दोनों बुद्ध के प्रारंभिक गुरु थे।
6 वर्ष तक अथक परिश्रम एवं घोर तपस्या के बाद 35 वर्ष की आयु में वैशाख पूर्णिमा की एक रात पीपल (बोधि वृक्ष) वृक्ष के नीचे निरंजना (पुनपुन) नदी के तट पर सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी दिन से वे ‘तथागत’ हो गए।
ज्ञान की प्राप्ति के बाद गौतम ‘बुद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
बौद्ध धर्म का इतिहास-Bauddh dharm ka itihas
बुद्ध और मार
गौतम ज्ञान प्राप्ति के लिये गया (बिहार) में ‘निरंजना नदी’ के तट पर ‘पीपल वृक्ष’ (बोधि वृक्ष) के नीचे दृढ़ निश्चय के साथ अपनी समाधि लगाई कि ज्ञान प्राप्ति न होने तक समाधि भंग न करेंगे। तभी मार (कामदेव) के नेतृत्व में अनेक पैशाचिक तृष्णाओं ने उनकी समाधि भंग करने की चेष्टा की। किंतु गौतम निश्चल और अडिग रहे। आठवें दिन उन्हें ज्ञान (बोधि) प्राप्त हुआ और वे ‘बुद्ध’ कहलाये।
धर्म चक्र प्रवर्तन
- उरुवेला ( वर्तमान बोधगया) से बुद्ध सारनाथ (ऋषिपत्तनम या मृगदाव) आए। यहाँ पर पाँच ब्राह्मण संन्यासियों को अपना प्रथम उपदेश दिया, जिसे बौद्ध ग्रंथों में धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से जाना जाता है।
- बुद्ध ने सर्वप्रथम ‘तपस्सु’ एवं ‘भल्लिक’ नामक दो शूद्रों को बौद्ध धर्म का अनुयायी बनाया।
- बुद्ध के राजगृह पहुँचने पर बिम्बिसार ने उनका स्वागत किया और वेणुवन विहार दान में दिया। राजगृह में ही सारिपुत्र, महामोद्गलायन, उपालि, अभय आदि इनके शिष्य बने।
- ज्ञान प्राप्ति के 8वें वर्ष वैशाली के लिच्छवियों ने बुद्ध को वैशाली आमंत्रित किया तथा ‘कूटाग्रशाला’ नामक विहार दान में दिया।
- अपने शिष्य आनंद के कहने पर बुद्ध ने वैशाली में महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दी। प्रजापति गौतमी पहली भिक्षुणी थीं।
- कौशांबी का शासक उदायिन, बौद्ध भिक्षु पिंडोला भारद्वाज के प्रभाव से बौद्ध बन गया तथा घोषिताराम विहार भिक्षु संघ को प्रदान किया।
- ज्ञान प्राप्ति के 20वें वर्ष बुद्ध श्रावस्ती पहुँचे तथा वहाँ अंगुलिमाल नामक डाकू को अपना शिष्य बनाया।
नोटः बुद्ध ने अपने जीवन के सर्वाधिक उपदेश कोशल राज्य कीराजधानी श्रावस्ती में दिये। उन्होंने अंतिम उपदेश कुशीनगर में सुभद्द को दिया था। मगध को उन्होंने अपना प्रचार केंद्र बनाया।
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महापरिनिर्वाण
- महात्मा बुद्ध अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में हिरण्यवती नदी के तट पर अपने शिष्य धुंद के यहाँ सूकरमादव भोज्य सामग्री खाई और अतिसार रोग से पीड़ित हो गए। यहीं पर 483 ई.पू. में 80 वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हो गई। इसे बौद्ध परंपरा में ‘महापरिनिर्वाण’ के नाम से जाना जाता है।
- मृत्यु के पूर्व कुशीनारा के परिव्राजक सुभद्द को उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिया।
- महापरिनिर्वाण के बाद बुद्ध के अस्थि अवशेष को 8 जगह- मगध, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लकप्प, रामग्राम पावा, कुशीनारा और वेथादीप भेजा गया। इन्हीं आठ क्षेत्रों में स्तूप बनाये गए। बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ एवं सिद्धांत
- बुद्ध ने आम जनता की भाषा ‘पालि’ में उपदेश दिये। उनके अनुसार सृष्टि दुःखमय, क्षणिक एवं आत्मविहीन है। वे ईश्वर एवं अपौरुषेय वेद की सत्ता को अस्वीकार करते हैं। बुद्ध ने जन्म आधारित वर्णं व्यवस्था को अस्वीकार किया।
- बुद्ध ने ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ को संपूर्ण जगत पर लागू किया। महात्मा बुद्ध के अनुसार, एक वस्तु के विनाश के पश्चात् दूसरे की उत्पत्ति होती है। प्रत्येक घटना के पीछे कार्य-कारण का संबंध है। कार्य-कारण का यही सिद्धांत ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ के नाम से जाना जाता है।
- बौद्ध ने निर्वाण प्राप्त करने को कहा अर्थात् इच्छाओं और तृष्णाओं से छुटकारा, जिससे जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति मिले। निर्वाण का अर्थ है ‘दीपक का बुझ जाना’ अर्थात् जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना। बुद्ध ने मध्यम मार्ग (मध्यमा प्रतिपदा का उपदेश दिया।
बौद्ध धर्म के त्रिरत्न
- 1-बुद्ध
- 2-धम्म
- 3-संघ
बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य
- दुःख – संसार दुःखों का घर है
- दुःख समुदाय – तृष्णा (इच्छा) दुःखों का कारण है
- दुःख निरोध – इच्छाओं के त्याग से ही मनुष्य दुःखों से छुटकारा पा सकता है
- दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा – इच्छा को अष्ट मार्ग पर चल कर समाप्त किया जा सकता है।
आष्टांगिक मार्ग
गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य में दुःख निरोध का उपाय बताया। इसे ‘दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा’ कहा जाता है। इसे ‘मध्यमा प्रतिपदा’ या ‘मध्यम मार्ग’ भी कहते हैं। उनके इस मध्यम प्रतिपदा में आठ सोपान हैं, इसलिये इसे आष्टांगिक मार्ग भी कहते हैं। इसके आठ सोपान निम्न हैं
- सम्यक् दृष्टि – वस्तु के वास्तविक स्वरूप की समझ
- सम्यक् संकल्प – लोभ, द्वेष व हिंसा से मुक्त विचार
- सम्यक् वाक् – अप्रिय वचनों का त्याग
- सम्यक् कर्मात – सत्कर्मों का अनुसरण
- सम्यक् आजीव – सदाचार युक्त आजीविका
- सम्यक् व्यायाम – मानसिक/शारीरिक स्वास्थ्य
- सम्यक् स्मृति – सात्विक भाव
- सम्यक् समाधि – एकाग्रता
बुद्ध के अनुसार आष्टांगिक मार्गों का पालन करने के उपरांत मनुष्य की भवतृष्णा नष्ट हो जाती है और उसे निर्वाण प्राप्त हो जाता है।
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दस शील- सदाचार पर बल
बौद्ध धर्म में निर्वाण प्राप्ति के लिये सदाचार तथा नैतिक जीवन पर अत्यधिक बल दिया गया है। दस शीलों का अनुशीलन नैतिक जीवन का आधार है। इन दस शीलों को शिक्षापद भी कहा गया है, ये हैं-
- अहिंसा का पालन
- सत्य बोलना
- अस्तेय (चोरी न करना)
- अपरिग्रह (किसी प्रकार की संपत्ति न रखना)
- मद्य सेवन न करना
- असमय भोजन न करना
- सुखप्रद बिस्तर पर न सोना
- आभूषणों का त्याग
- स्त्रियों से दूर रहना (ब्रह्मचर्य)
- व्यभिचार आदि से दूर रहना ।
- अहिंसा का पालन,
- सत्य बोलना,
- चोरी न करना,
- लोभ का त्याग,
- सुगन्धित वस्तुओं का निषेध,
- असमय भोजन न करना
- कोमल शैय्या का त्याग
- कामिनी कंचन का त्याग,
- ब्रह्मचर्य का पालन
- नृत्य-गान का त्याग,
गृहस्थों के लिये केवल 5 शील तथा भिक्षुओं के लिये 10 शील मानना अनिवार्य था। सामान्य मनुष्यों के लिए बुद्ध ने जिस धर्म का उपदेश दिया उसे उपासक धर्म कहा गया। ‘दीर्घ निकाय’ के ‘सिंगालोवादसुत’ में इस धर्म का विवरण मिलता है। यह भिक्षु धर्म से भिन्न था।
गौतम बुद्ध ने धर्म (शिक्षाओं) के प्रचार हेतु संघ की व्यवस्था की। इसमें प्रवेश पाने हेतु 15 वर्ष आयु, माता-पिता की अनुमति, अपराधी या ऋणी न होने वाला व्यक्ति तथा तपेदिक, कोढ़ आदि से पीड़ित न होने वाले व्यक्ति को ही अनुमति थी। उसे के मुंडवाकर, पीले वस्त्र धारण करके तीन वाक्य कहने पड़ते थे-“बुद्धम् शरणम् गच्छामि।”, “धम्मम् शरणम् गच्छामि।”, “संघम् शरणम् गच्छामि।” मठों तथा विहारों की स्थापना की गयी। भिक्षुओं को नित्य प्रति कड़े अनुशासन में रहना पड़ता था। वर्षा ऋतु के तीन मास भिक्षु धर्म प्रचार छोड़ कर मठों में विश्राम करते थे। भिक्षुणियों के रहने हेतु अलग व्यवस्था तथा कड़े नियम थे। 15 दिन में संघ के सदस्यों की सभा होती थी तथा इसकी कार्य प्रणाली प्रजातन्त्रात्मक थी। प्रत्येक बात का निर्णय बहुमत द्वारा लिया जाता था। भारतीय सभ्यता के लिए यह गौरव का विषय है कि सैकड़ों वर्ष पहले भारत में प्रजातंत्र की नींव पड़ चुकी थी।
बौद्ध धर्म का इतिहास-Bauddh dharm ka itihas
दर्शन
- अनीश्वरवाद – ईश्वरीय सत्ता में विश्वास नहीं।
- शून्यतावाद – संसार की समस्त वस्तुएँ या पदार्थ सत्ताहीन हैं।
- अनात्मवाद – आत्मचेतना पर सर्वाधिक बल।
- क्षणिकवाद – संसार में कोई भी चीज स्थिर नहीं।
बुद्ध के जन्म के पूर्व अन्य धार्मिक आंदोलन
संप्रदाय | संस्थापक |
---|---|
आजीवक संप्रदाय (भाग्यवादी) | मक्खलि गोशाल |
घोर अक्रियावादी | पूरन कस्सप |
उच्छेदवादी (भौतिकवादी) | अजित केस कंबलि |
नित्यवादी | पकुध कच्चायन |
संदेहवादी (अज्ञेयवादी, अनिश्चयवादी) | संजय वेलदुपुत्तु |
पांच बुद्ध
- (1) कुकुच्छानंद,
- (2) कनक भंजन,
- (3) कश्यप,
- (4) शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध),
- (5) मैत्रेय (भावी बुद्ध) – *अंतिम बुद्ध सामंतभद्र होंगे।
चार ऋषिपाद – आत्मोकर्षण के लिए छंद, वीर्य, चित्त और विमर्श की प्रधानता
पांच इंद्रियां (शक्ति) – श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा
सात बोध्यंग– स्मृति, धर्म-विजय, वीर्य, प्रीति, प्रश्रब्धि, समाधि, उपेक्षा
बौद्ध संघ एवं कार्यप्रणाली
- संघ में प्रविष्ट होने को ‘उपसंपदा’ कहा जाता था। संघ की सदस्यता लेने वालों को पहले ‘श्रमण’ का दर्जा मिलता था और 10 वर्षों बाद जब उसकी योग्यता स्वीकृत हो जाती थी, तब उसे ‘भिक्षु’ का दर्जा मिलता था।
- संघ में अल्पवयस्क, चोर, हत्यारा, ऋणी व्यक्ति, दास तथा रोगी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था।
- बौद्ध संघ की संरचना गणतंत्र प्रणाली पर आधारित थी। बौद्ध संघ का दरवाजा हर जातियों के लिये खुला था। अतः बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था एवं जाति प्रथा का विरोध किया।
- संघ की सभा में प्रस्ताव (नत्ति) का पाठ होता था। प्रस्ताव पाठ को ‘अनुसावन’ कहा जाता था। सभा की वैध कार्रवाई के लिये न्यूनतम संख्या (कोरम) 20 थी।
- प्रत्येक 15वें दिन पूर्णिमा या अमावस्या को सांयम उपोसथ’ नामक सभा होती थी, जिसमें ‘पातिमोक्ख’ का पाठ किया जाता था। (पातिमोक्ख विनयपिटक की मठ संबंधी सूची है, जिसमें 226 प्रकार के अपराधों और उनके प्रायश्चित करने की सूची दी गई है।)
- इस सभा में प्रत्येक सदस्य इसके माध्यम से स्वयं नियमों के उल्लंघन को स्वीकार करता था। गंभीर अपराध पर वयस्कों एवं वृद्धों की समिति विचार करती थी और सदस्यों को प्रायश्चित करने या संघ से निकालने की आज्ञा देती थी।
- वर्षा ऋतु के दौरान मठों में प्रवास के समय भिक्षुओं द्वारा अपराध स्वीकारोक्ति समारोह ‘पवरन’ कहलाता था।
- बौद्धों के लिये महीने के चार दिन अमावस्या, पूर्णिमा और दो चतुर्थी दिवस उपवास के दिन होते थे।
- बौद्धों का सबसे पवित्र एवं महत्त्वपूर्ण दिन या त्योहार वैशाख की पूर्णिमा है, जिसे ‘बुद्ध पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। इस दिन का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि इसी दिन बुद्ध का जन्म, ज्ञान की प्राप्ति एवं महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई।
- बौद्ध धर्म के अनुयायी दो वर्गों में विभाजित थे- भिक्षु एवं भिक्षुणी तथा उपासक एवं उपासिकाएँ। गृहस्थ जीवन में रहकर बौद्ध धर्म मानने वाले लोगों को ‘उपासक’ कहा जाता था।
बुद्ध के अवशेष
बुद्ध के अवशेष को निम्न व्यक्तियों ने आपस में बांटकर 8 स्तूप बनाये थे-
- मगध नरेश अजातशत्रु
- वैशाली के लिच्छवि
- कपिलवस्तु के शाक्य
- अल्लकप्प के बुलिय
- रामगाम के कोलिय
- रामगाम के कोलिय
- पावा और कुशिनारा के मल्ल
- पिप्पलिवन के मौर्य
स्तूप
स्तूप का शाब्दिक अर्थ है-‘किसी वस्तु का ढेर ।’ स्तूप का विकास संभवतः मिट्टी के ऐसे चबूतरे से हुआ है, जिसका निर्माण मृतक को चिता के ऊपर अथवा मृतक की चुनी हुई अस्थियों को रखने के लिये किया जाता था।
बौद्ध धर्म का इतिहास-Bauddh dharm ka itihas
स्तूपों को मुख्यत चार भागों में बाँटा जा सकता है-
- शारीरिक स्तूप – इसमें बुद्ध के शरीर धातु केश और दंत आदि को रखा जाता था।
- पारिभोगिक स्तूप – इसमें महात्मा बुद्ध के द्वारा उपयोग की हुई वस्तुएँ जैसे- भिक्षापात्र, चीवर, संघाटी, पादुका आदि को रखा जाता था।
- उद्देशिका स्तूप – इनका संबंध बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं की स्मृति से जुड़े स्थानों से था।
- पूजार्थक स्तूप – इसका निर्माण बुद्ध की श्रद्धा से वशीभूत धनवान व्यक्तियों द्वारा तीर्थ स्थानों पर होता था।
स्तूप के महत्त्वपूर्ण हिस्से
- वेविका (रेलिंग ): इसका निर्माण स्तूप की सुरक्षा के लिये होता था।
- मेधि (कुर्सी) वह चबूतरा था, जिसपर स्तूप का मुख्य हिस्सा आधारित होता था।
- अंड- स्तूप का अर्द्धगोलाकार हिस्सा होता था।
- हर्मिका स्तूप के शिखर पर अस्थि की रक्षा के लिये।
- छत्र धार्मिक चिह्न का प्रतीक।
- सोपान- मेधि पर चढ़ने-उतरने हेतु सीढ़ी।
चैत्य एवं विहार
चैत्यः– चैत्य का शाब्दिक अर्थ होता है चिता संबंधी एक बौद्ध मंदिर है जिसमें एक स्तूप समाहित होता है। पूजार्थक स्तूप को चैत्य कहा जाता है
विहारः– बौद्ध चैत्यों के पास भिक्षुओ के लिए आवास बनाया जाता था, जिसे ‘विहार’ कहा जाता था। चैत्यों के उपासना स्थल में परिवर्तित हो जाने के कारण उसके समीप ही विहार का निर्माण किया जाने लगा।
प्रसिद्ध बौद्ध स्थल –
महाबोधि मंदिर (बिहार), द वाट थाई मंदिर, महापरिनिर्वाण मंदिर (उत्तर प्रदेश), चौखंडी स्तूप, धर्मराजिका स्तूप, धर्मख स्तूप (उत्तर प्रदेश) नामड्रोलिंग न्यिंगमापा मॉनेस्टी (कर्नाटक) इत्यादि।
बौद्ध धर्म की सर्वाधिक त्त्वपूर्ण देन भारतीय कला एवं स्थापत्य के विकास में रही। साँची, भरहुत, अमरावती के स्तूप तथा अशोक के शिला स्तम्भों, कार्ले की बौद्ध गुफाएँ, अजंता, एलोरा, बाघ व बराबर की गुफाएँ इसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है।
बुद्ध की प्रथम मूर्ति संभवत: मथुरा कला में बनी थी। सर्वाधिकबुद्ध मूर्तियों का निर्माण गांधार शैली में हुआ है।
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बौद्ध संगीतियाँ – महासभाए
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हीनयान- महायान में अंतर
- हीनयान के प्रमुख संप्रदाय हैं- वैभाषिक तथा सौत्रान्तिक । स्थविरवादी, सर्वास्तिवादी तथा सम्मितीय हीनयान के अन्य उपसंप्रदाय हैं। बौद्ध धर्म के अंतर्गत सर्वास्तिवादियों की मान्यता थी कि फिनोमिना के अवयव पूर्णत: क्षणिक नहीं हैं, अपितु अव्यक्त रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं। महायान बौद्ध संप्रदाय के दो मुख्य भाग हैं- शून्यवाद या माध्यमिका एवं विज्ञानवाद या योगाचार |
- हीनयान में बुद्ध महापुरुष के रूप में हैं, जबकि महायान में देवता के रूप में स्थापित हो गए।
- हीनयान में बुद्ध को प्रतीकों के रूप में दर्शाया गया है, जबकि महायान में मूर्तिपूजा शुरू हो गई।
- हीनयान स्वयं के प्रयत्नों पर बल देता है. जबकि महायान गुणों के स्थानांतरण पर बल देता है।
- हीनयान का आदर्श है- ‘अहंत पद की प्राप्ति’ जबकि महायान में ‘बोधिसत्व’ की परिकल्पना मौजूद है।
बोधिसत्व
महायान का आदर्श बोधिसत्व है। बोधिसत्व करुणामय माने गए हैं, जो समस्त प्राणियों को प्रबोध के मार्ग पर चलने में सहायता करने के लिये स्वयं की निर्वाण प्राप्ति विलंबित करते हैं। ये मानव अथवा पशु किसी रूप में भी हो सकते हैं। महायान का आदर्श बोधिसत्व ‘अवलोकितेश्वर’ था जिसे ‘पद्मपाणि’, ‘अमिताभ’, ‘मंजूनाथ’, ‘मैत्रेय’ (भावी) आदि नामों से भी जाना जाता है।
नोट: कन्हेरी शैलकृत गुफा में ग्यारह सिरों के बोधिसत्व का अंकन मिलता है।
बौद्ध धर्म का इतिहास-Bauddh dharm ka itihas
बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदाय
- महासंधिक
- प्रधान केंद्र मगध था
- प्रत्येक व्यक्ति बुद्दत्व प्राप्त क्र सकता है
- बाद में यह महायान में परिणित हो गया
- इसके दो उपसम्प्रदाय है –
- माध्यमिक ( शुन्यवाद)–
- प्रवर्तक नागार्जुन
- यह बौद्ध धर्म का सापेक्षवाद का सिद्दांत है
- इस सम्प्रदाय के मुख्य विद्वान है – आर्यदेव, चंद्रकिर्ती, शांतिदेव, शांतिरक्षित, बुद्धपालित
- योगाचार ( विज्ञानवाद )
- प्रवर्तक मैत्रैयनाथ
- विज्ञन ही एकमात्र सत्ता है
- योग एवं आचार पर होने के कर्ण योगाचार कहा गया
- अन्य विद्वान् – असंग, वसुबंधु, आचार्य स्थिरमित, आचार्य धर्मकीर्ति, आचार्य दिग्नाग।
- माध्यमिक ( शुन्यवाद)–
- स्थविरवादी
- प्रधान केंद्र कश्मीर
- बुद्धत्व प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता
- बाद में यह हीनयान में परिवर्त्तित हो गया
- इसके भी दो उपसंप्रदाय हैं-
- सौत्रान्तिक
- प्रवर्तक कुमारपाल
- बाह्य सत्ता स्वीकार्य, किंतु वस्तुपरक अस्तित्व नहीं
- अन्य विद्वान – यशोमति, बुद्धदेव, धर्मत्रात
- वैभाषिक
- प्रवर्तक कात्यायानीपुत्र
- जो प्रत्यक्ष है, वही एकमात्र ज्ञान है
- अन्य विद्वान धर्मत्रात, घोषक, वसुमित्र, बुद्धदेव
- सौत्रान्तिक
- वज्रयान संप्रदाय
- बौद्धधर्म की महायान शाखा का एक तांत्रिक संप्रदाय
- 8 वीं शताब्दी में सर्वाधिक उत्कर्ष
- बुद्ध को वज्रधर माना और पांच ध्यानस्थ बुद्ध – वैराचन, रत्नसंभव, अमिताभ, अमोघसिद्धि तथा अक्षोभ्य
- 7वीं 8वीं शताब्दी के आते-आते बौद्ध धर्म के नियमों में और परिवर्तन आया, परिणामस्वरूप वज्रयान संप्रदाय का उदय हुआ। इस संप्रदाय के अनुयायी बुद्ध को अलौकिक शक्तियों वाला पुरुष मानते थे।
- इस संप्रदाय के सिद्धांत ‘मंजुश्री मूल कल्प’ तथा ‘गुह्य समाज’ नामक ग्रंथों में मिलते हैं।
- इसमें तंत्र-मंत्र पर बल दिया गया और बुद्ध को देवी तारा से जोड़ दिया गया।
- वज्रयान साधु, गुह्य साधना का प्रयोग करने लगे और पंचमकार (मद्य, माँस, मैथुन, मत्स्य मुद्रा) की साधना करने लगे।
- वज्रयान संप्रदाय के अंतर्गत 10वीं शताब्दी में एक अन्य संप्रदाय कालचक्रयान अस्तित्व में आया, इसमें सर्वोच्च देवता श्री कालचक्र
को माना गया। - यह संप्रदाय तिब्यत एवं चीन में विशेष रूप से प्रचलित हुआ।
- कालचक्रयान
- उदय 9 वी0 – 10 वी0 शदी में
- प्रवर्तक – मंजूश्री
- प्रमुख देवता- कालचक्र
- मानव शारीर को ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना
बौद्ध साहित्य
महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरांत आयोजित विभिन्न बौद्ध संगोतियों में संकलित किये गए त्रिपिटक संभवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्म पृथ हैं। ये त्रिपिटक सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटक के नाम से जाने जाते हैं।
सुत्तपिटक
‘सुत्त’ का शाब्दिक अर्थ है- धर्मोपदेश
- सुत्तपिटक में बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का उल्लेख है।
- यह पिटक पाँच निकायों में विभाजित है-
- दीर्घ निकायः- इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन के आखिरी समय, अंतिम उपदेशों, मृत्यु तथा अंत्येष्टि का वर्णन किया गया है।
- मज्झिम निकायः इसमें महात्मा बुद्ध को कहीं साधारण मनुष्य तो कहीं अलौकिक शक्ति वाले देव के रूप में वर्णित किया गया है।
- संयुक्त निकायः गद्य एवं पद्य दोनों शैलियों के प्रयोग वाला यह निकाय अनेक संयुक्तों का संकलन मात्र है। इसमें मज्झिम प्रतिपदा एवं आष्टांगिक मार्ग का उल्लेख मिलता है।
- अंगुत्तर निकाय: इसमें महात्मा बुद्ध द्वारा भिक्षुओं को उपदेश में कही जाने वाली बातों का वर्णन है। इसमें छठी शताब्दी ई.पू. के सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।
- खुद्दक निकाय: भाषा व विषय-शैली की दृष्टि से सभी निकायों से अलग, लघु ग्रंथों के संकलन वाला यह निकाय अपने आप में स्वतंत्र एवं पूर्ण है
- सुत्तपिटक की रचना आनंद ने की थी।
- बौद्ध धर्म का इतिहास-Bauddh dharm ka itihas
विनयपिटक
- इसमें बौद्ध मठों में रहने वाले भिक्षु-भिक्षुणियों के अनुशासन संबंधी नियम दिये गए हैं।
- बौद्ध संघ की कार्यप्रणाली की व्यवस्था भी इसी ग्रंथ में उल्लिखित है। यह सुत्तविभंग, खंदक तथा परिवार में विभक्त है।
- इसकी रचना उपालि ने की थी।
अभिधम्मपिटक
- इसमें महात्मा बुद्ध के उपदेशों एवं सिद्धांतों तथा बौद्ध मतों की दार्शनिक व्याख्या की गई है।
- एक मान्यता के अनुसार इस पिटक का संकलन अशोक के समय में संपन्न तृतीय बौद्ध संगीति में मोगलिपुततिस्स ने किया।
- त्रिपिटक के अतिरिक्त कुछ अन्य बौद्ध ग्रंथ भी पालि भाषा में लिखे गए हैं। ये हैं-
- मिलिंदपन्होः– इससे ईसा की प्रथम दो शताब्दियों के भारतीय जनजीवन के विषय में जानकारी मिलती है। इसमें यूनानी शासक मिनाण्डर एवं बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच बौद्ध मत पर वार्ता का वर्णन मिलता है।
- दीपवंशः– सिंहल द्वीप ( श्रीलंका) के इतिहास पर प्रकाश डालने वाला चतुर्थ शताब्दी ई. में रचित यह पहला ग्रंथ है।
- महावंशः– इस ग्रंथ में मगध के राजाओं की क्रमबद्ध सूची मिलती है। इसके रचयिता मदंत महानाम ( 5वीं 6ठी शताब्दी ई. में) हैं।
- जातक कथाएँ:– इसमें बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ हैं। यह पालि भाषा में रचित है।
- महावस्तुः– यह ‘विनयपिटक’ से संबंधित ग्रंथ है।
बुद्ध की प्रमुख मुद्राएँ
धर्मचक्र मुद्रा
- बुद्ध की यह मुद्रा उनके जीवनकाल के उन महत्त्वपूर्ण क्षणों के ऊपर केंद्रित है, जब वे प्रबोधन के पश्चात्सा रनाथ के कुरंग उपवन में पहली बार धर्मोपदेश दे रहे थे।
अभय मुद्रा
- महात्मा बुद्ध की यह मुद्रा शांति, सुरक्षा, दयालुता एवं भयमुक्तता का प्रतीक है।
भूमिस्पर्श मुद्रा
- बुद्ध की यह भाव-भंगिमा बोधगया में उनके ज्ञान प्राप्ति (प्रबोधन) की संकेतक है।
ज्ञान मुद्रा
- बुद्ध के अंगूठे के स्पर्श से चक्र के निर्माण और हथेली से सीने को स्पर्श, ज्ञान मुद्रा को प्रदर्शित करती है।
वरद मुद्रा
- यह मुद्रा ऊर्जा की प्राप्ति के लिये पूर्णतः समर्पित होने का गुण सिखाती है।
बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का कारण
- जटिल दार्शनिक वाद-विवाद का न होना। लोकभाषा ‘पालि’ में उपदेश देना।
- बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त होना।
- सामाजिक समानता का सिद्धांत (बौद्ध धर्म में वर्णव्यवस्था को अस्वीकृत किया गया ) |
- बौद्ध धर्म का लचीलापन; इसमें मध्यम मार्ग का रास्ता बताया गया था।
- समय-समय पर बौद्ध संगीतियों का आयोजन।
बौद्ध भिक्षु
बुद्ध के अनुयायियों के दो वर्ग थे- उपासक, जो परिवार के साथ रहते थे और भिक्षु, जिन्होंने गृह जीवन त्यागकर संन्यासी जीवन अपना लिया। वे एक संगठन के रूप में इकट्ठा रहते थे जिसे बुद्ध ने संघ कहा। स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दी गई। बौद्ध संघ के सदस्यों को समान अधिकार प्राप्त थे।
बौद्ध धर्म का इतिहास-Bauddh dharm ka itihas
बौद्ध धर्म की उपादेयता और प्रभाव
आर्थिक क्षेत्र में
आर्थिक क्षेत्र में लोहे के फाल वाले हल से खेती करने से अनाजों के पैदावार में वृद्धि हुई तथा व्यापार और सिक्कों के प्रचलन से व्यापारियों और अमीरों को धन संचित करने का मौका मिला। किंतु, बौद्ध धर्म ने घोषणा की कि धन संचित नहीं करना चाहिये, क्योंकि धन दरिद्रता, घृणा, क्रूरता और हिंसा की जननी है। परिणामत: धन लोलुपता में कमी आई।
सामाजिक क्षेत्र में
सामाजिक क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने स्त्रियों और शूद्रों के लिये अपने द्वार खोलकर समाज पर गहरा प्रभाव जमाया और जिसने भी बौद्ध धर्म अपनाया, उसे हीनता से मुक्ति मिली।
राजनीतिक क्षेत्र में
राजनीतिक क्षेत्र में जिस शासक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, चाहे वह समकालीन हो या परवर्ती, अपनी नीति में अहिंसा को एक नीति के रूप में लागू किया, जैसे- अशोक ने धौद्ध धर्म स्वीकार कर ‘धम्म नीति’ का अनुसरण किया तथा लंबे समय तक शांति के साथ अपने साम्राज्य पर शासन किया।
सांस्कृतिक क्षेत्र में
सांस्कृतिक क्षेत्र में – प्राचीन भारत की कला पर बौद्ध धर्म का प्रभाव परिलक्षित हुआ। श्रद्धालु उपासकों ने बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाओं को पत्थर पर उकेरा है, उदाहरण के लिये-साँची, भरहुत सारनाथ, कौशांबी आदि स्थानों पर।
बौद्ध धर्म के पतन के कारण
बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे-
- बौद्ध धर्म में ब्राह्मणवादी क्रियाकलापों का समावेश हो गया, क्योंकि बुद्ध को ब्राह्मणों ने विष्णु का अवतार मानकर वैष्णव धर्म में समाहित कर लिया। अतः बौद्ध धर्म ने अपनी विशिष्ट पहचान खो दी।
- बौद्ध धर्म में कर्मकांडों का प्रारंभ ( अनुष्ठान, विधान) ।
- बौद्ध भिक्षुओं का आम लोगों से दूर जाना।
- पालि भाषा त्यागकर संस्कृत को अपनाना।
- बौद्ध मठ एवं विहार कुरीतियों के केंद्र बन गए।
- बौद्ध मठों में अत्यधिक धन संचय होने के कारण यह आक्रमणकारियों का भी शिकार हुआ।
- राजकीय संरक्षण का अंत (शुंग, कण्व, आंध्र-सातवाहन तथा गुप्त वंशीय शासकों ने ब्राह्मण धर्म को संरक्षण प्रदान किया, वौद्ध धर्म को नहीं। परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म एक राष्ट्रीय धर्म न रहा और इस धर्म का पतन होने लगा।)
- शैव धर्म से बौद्ध धर्म की प्रतिद्वंद्विता हुई। बंगाल के शैव शासक शशांक ने बोधगया के बोधि वृक्ष को कटवा दिया।
बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म में समानता व असमानता के बिंदु
समानता
- दोनों धर्मों के संस्थापक क्षत्रिय कुल के थे।
- दोनों धर्मों में वेदों की प्रमाण्यता के प्रति अनास्था है।
- कर्मकांडों के फलीभूत होने का निषेध किया गया है। कर्म व पुनर्जन्म दोनों मानते हैं।
- शूद्रों व महिलाओं के द्वारा मोक्ष प्राप्ति की संभावना का विरोध किया गया।
असमानता
- बौद्ध निर्वाण इसी जीवन में संभव मानते हैं, जबकि जैन शरीर से मुक्ति के पश्चात् इसे संभव मानते हैं।
- बौद्ध मत मुक्ति हेतु मध्यम मार्ग का उपदेश देता है, जबकि जैन कठोर साधना पर बल देता है।
- बुद्ध ने जाति प्रथा की कठोर निंदा की है, जबकि महावीर ने नहीं।
- महावीर ने बुद्ध की अपेक्षा अहिंसा व अपरिग्रह पर अधिक बल दिया है।
- मुख्यतः बौद्ध धर्म में ‘पालि’ तथा जैन धर्म में ‘प्राकृत भाषा का प्रयोग किया गया है।
शैव धर्म
- शिव का अर्थ है- शुभ, कल्याण, मंगल।
- शिव की पूजा करने वालों को ‘शैव’ कहा जाता है, इससे संबंधित धर्म शैव धर्म कहलाया।
- शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक पुरातात्त्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति से प्राप्त अवशेषों से मिलता है। शिव लिंग (मूर्तिपूजा) का उल्लेख द्वितीय सदी ई.पू. में पतंजलि के ‘महाभाष्य’ से मिलता है। ऋग्वेद में शिव के लिये ‘रूद्र’ नामक देवता का उल्लेख मिलता है।
- अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पाशुपति एवं भूपति कहा गया है।
- लिंगपूजा का स्पष्ट वर्णन ‘मत्स्य पुराण’ में मिलता है।
- शैव उपासक नयनार कहे जाते थे।
- शिव की प्राचीनतम मूर्ति ‘गुडीमल्लम लिंग रेनगुंटा’ से मिली है।
प्रमुख शैव संप्रदाय
वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है-
पाशुपत
- पाशुपत संप्रदाय शैवों का सर्वाधिक प्राचीन संप्रदाय है। इसके संस्थापक लकुलीश थे। इनको शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है। इस मत के अनुयायी ‘पंचार्थिक’ कहलाए।
- इस संप्रदाय का प्रमुख सैद्धांतिक ग्रंथ ‘पाशुपत सूत्र’ है।
- पाशुपत, शैव मत का सबसे पुराना सम्प्रदाय है।
- नेपाल के काठमाण्डू का पशुपतिनाथ मंदिर इस मत का प्रमुख केंद्र है।
- दक्षिण भारत में शैव धर्म के उपासक लिंगायत या जंगम् कहे जाते थे। कश्मीरी शैव शुद्ध रूप से दार्शनिक एवं ज्ञानमार्गी था। इसके संस्थापक वसुगुप्त थे।
कापालिक
- इस संप्रदाय के इष्टदेव भैरव थे।
- इस संप्रदाय का प्रमुख केंद्र श्री शैल नामक स्थान था।
- ये लोग तामसी क्रियाओं के द्वारा अपने उपास्य देव को प्रसन्न करते थे। इस संप्रदाय के अनुयायी आसुर प्रवृत्ति के होते थे तथा ये लोग सुरा और नैवेद्य अर्पित कर भैरव की उपासना करते थे।
कालामुख
- कापालिक संप्रदाय से ही मिलता-जुलता शैव धर्म का यह एक संप्रदाय था।
- इस संप्रदाय के अनुयायी भी तामसी प्रवृत्ति के थे। ये कांपालिकों की अपेक्षा अत्यधिक भयंकर प्रवृत्ति वाले होते थे। ये लोग नर कपाल में भोजन करते थे और शरीर पर चिता की भस्म मलते थे तथा मदिरा का सेवन करते थे।
- शिव पुराण में इस संप्रदाय के अनुयायियों को ‘महाव्रतधर’ कहा गया है।
लिंगायत अथवा वीर शैव
- यह संप्रदाय दक्षिण भारत (विशेषकर कर्नाटक) में प्रचलित था। इन्हें ‘जंगम’ भी कहा जाता था। इस संप्रदाय के लोग शिवलिंग की उपासना करते थे।
- इस संप्रदाय के अनुयायियों का विश्वास है कि भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
नोट:- कुषाण शासकों की मुद्राओं पर शिव एवं नन्दी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।
- चोल शासक राजराज-1 ने तंजौर में प्रसिद्ध राजराजेश्वर शैव मंदिर का निर्माण करवाया, जिसे वृहदेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
- एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण कृष्ण-1 (राष्ट्रकूट शासक) ने करवाया।
शाक्त धर्म
- इस संप्रदाय में मुख्यतः माता दुर्गा एवं काली की उपासना की जाती है।
- शाक्त संप्रदाय का शैव मत के साथ घनिष्ट संबंध है।
- माता दुर्गा का सर्वप्रथम उल्लेख ‘मार्कण्डेय पुराण’ में मिलता है।
- चौसठ योगिनी मंदिर (जबलपुर, मध्य प्रदेश) में शाक्त धर्म के विकास और प्रगति को प्रमाणित करने का साक्ष्य उपलब्ध है।
- विदित है कि सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिले हैं।
वैष्णव धर्म (भागवत धर्म)
- भागवत धर्म के विषय में प्रारंभिक जानकारी उपनिषदों में मिलती है। भागवत धर्म का उद्भव मौर्योत्तर काल में हुआ।
- इस धर्म के संस्थापक वासुदेव कृष्ण थे, जो वृष्णि वंशीय यादव कुल के नेता थे। इनका निवास स्थल मथुरा था।
- ‘छांदोग्य उपनिषद’ में श्री कृष्ण का उल्लेख सर्वप्रथम मिलता है। उसमें कृष्ण को देवकी पुत्र व ऋषि घोर अंगिरस का शिष्य बताया गया है।
नोट: वासुदेव कृष्ण का प्रारंभिक अभिलेखीय उल्लेख बेसनगर स्थित गरुड़ स्तम्भ अभिलेख में पाया जाता है।
- भागवत धर्म संभवतः सूर्य पूजा से संबंधित है। भागवत धर्म का सिद्धांत ‘भगवद्गीता’ में निहित है।
- महाभारत काल में कृष्ण का तादात्म्य विष्णु से किये जाने के कारण यह वैष्णव धर्म कहलाया।
- मेगस्थनीज ने कृष्ण को ‘हेराक्लीज’ नाम से उल्लिखित किया है।
- जैन धर्म ग्रंथ ‘उत्तराध्ययन सूत्र’ में वासुदेव, जिन्हें केशव नाम से भी पुकारा गया है, को 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का समकालीन बताया गया है
- विष्णु के दस अवतारों का उल्लेख ‘मत्स्यपुराण’ में मिलता है। दस अवतार हैं- मत्स्य, कूर्म (कच्छप), वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध और कल्कि (कंलि ) ।
- विष्णु के अवतारों में वराह अवतार’ सर्वाधिक लोकप्रिय है। वराह का प्रथम उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में है।
- दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म का विस्तार अलवार संतों ने किया, जिनकी संख्या 12 थी। इन संतों में ‘आण्डाल’ नामक महिला संत का भी उल्लेख है, जिसे ‘दक्षिण की मीरा’ कहा जाता है।
प्रमुख संप्रदाय | मत | आचार्य | समय |
---|---|---|---|
वैष्णव संप्रदाय | विशिष्टाद्वैतवाद | रामानुजाचार्य | 12वीं शताब्दी |
सनक संप्रदाय | द्वैताद्वैतवाद | निंबार्काचार्य | 13वीं शताब्दी |
ब्रह्म संप्रदाय | द्वैतवाद | मध्वाचार्य | 13वीं शताब्दी |
रुद्र संप्रदाय | शुद्धाद्वैतवाद | वल्लभाचार्य | 15वीं 16वीं शताब्दी |
बौदध धर्म से सम्बंधित प्रमुख तथ्य –
- थेरगाथा, भिक्षुओं के लिए निर्मित संग्रह है।
- थेरीगाथा, भिक्षुणियों के लिए निर्मित संग्रह है।
- पालि भाषा में लिखे गये ग्रंथों में मिलिन्दपन्हों, दीपवंश और महावंश प्रमुख हैं।
- संस्कृत भाषा में लिखे बौद्ध ग्रंथ हैं – महावस्तु, मंजूश्रीमूलकल्प, ललितविस्तार, बुद्धचरित, दिव्यावदान तथा सौन्दरानंद काव्य |
- बौद्ध धर्म के महायान व सर्वास्तिवाद का त्रिपिटक संस्कृत भाषा में है।
- बौद्ध साहित्य में अवदान, साहित्य का महत्त्व है। अवदान अर्थात् सत्कर्म या वीरोचित कर्म। ‘दिव्यावदान’ कृति इसी कोटि का ग्रंथ है।
- चीनी भाषा में बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम कश्यप मातंग ने किया।
- इसके बाद कुमारजीव, गुणवर्मन, बुद्धयश, पुण्यतात्र, संघदेव, गौतम, धर्मयश, गुणभद्र, धर्मजात-यश, परमार्थ चीन गये।
- मालानंद ने कोरिया में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
- शांतिरक्षित, पद्म संभव, कमलशील ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।
- हीनयान को श्रावकयान तथा महायान को ‘बोधि-सत्वयान’ भी कहते हैं।
- वर्षा ऋतु में चार महीने बौद्ध भिक्षु एक निश्चित स्थान पर ठहरकर समाधि करते थे, इसे आश्रय या वशा कहते थे।
- देवदत्त, सोणदण्ड एवं कूटदंत आदि ब्राह्मण बुद्ध के समसामयिक विरोधी थे।
- बुद्ध ने व्यापारियों के ऋण की निंदा नहीं की।
- संबोधि में बुद्ध को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ के सिद्धांत का ज्ञान हुआ था।
- महायान बौद्ध सम्प्रदाय का उदय आन्ध्रप्रदेश में हुआ।
- बौद्ध धर्म का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय थेरवाद है।
- बुद्ध तीन नामों से जाने जाते थे-I बुद्ध II तथागत तथा III शाक्यमुनि।
- रुम्मिनदेई स्तंभ लेख से बुद्ध के जन्म स्थान का संकेत मिलता है।
- बौद्धों के प्रस्ताव पाठ को अनुसावन कहा जाता था।
- बौद्ध संघों में प्रशासनिक कार्यों के लिए होने वाले मतदान को गुल्हक कहा जाता था।
- संघ में प्रविष्ट होने को उपसंवदा कहा जाता था।
- भिक्षुओं की सभा में किया जाने वाला विधि-निषेध पाठ पातिमोक्ख कहलाता था।
- भारत में पूजित पहली मानव प्रतिमा बुद्ध की थी।
- बुद्ध की सबसे पहली जीवनी का उल्लेख ललितविस्तार में हुआ है।
- वज्रयान सम्प्रदाय के सिद्धांत मंजुश्रीमूलकल्प एवं गुहा समाज में मिलते हैं।
- बुद्ध का अंतिम वर्षाकाल वैशाली में बीता।
- बौद्ध धर्म में प्रत्यक्ष मतदान को विवतक कहा जाता था।
- बौद्ध संघ में सभा की कार्रवाई के लिए न्यूनतम उपस्थित संख्या (कोरम) 20 थी।
- बुद्ध के जन्म पर उनके बारे में भविष्यवाणी कालदेव तथा कौण्डिन्य ने की थी।
बौदध धर्म से सम्बंधित प्रमुख प्रश्न
- बौद्ध धर्म के संस्थापक कौन थे ?
Ans- गौतम बुद्ध - चतुर्थ बौद्ध संगीति के उपाध्यक्ष कौन थे ?
Ans- अश्वघोष - महात्मा बुद्ध की जन्म स्थल लुम्बिनी वन किस महाजनपद के अंतर्गत आती थी ?
Ans- कोशल महाजनपद के - महात्मा बुद्ध की शौतेली माता का नाम क्या था ?
Ans- प्रजापति गौतमीके - बुद्ध के प्रथम दो अनुयायी कौन थे ?
Ans- काल्लिक तथा तपासु - बुद्ध ने कितने वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया ?
Ans- 29 वर्ष की आयु में - महात्मा बुद्ध द्वारा दिया गया अंतिम उपदेश क्या था ?
Ans सभी वस्तुएँ मरणशील होती हैं अतः मनुष्य को अपना पथ-प्रदर्शक स्वयं होना चाहिए। - एशिया का ज्योतिपुंज के नाम से किसे जाना जाता है ?
Ans- महात्मा बुद्ध - चतुर्थ बौद्ध संगीति किसके शासनकाल में हुई थी ?
Ans- कनिष्क (कुषाण वंश) के शासनकाल में - बौद्ध धर्म के त्रिरत्न कौन कौन है ?
Ans- बुद्ध, धम्म, संघ - महात्मा बुद्ध की माता का नाम क्या था ?
Ans- मायादेवी - बुद्धकाल में वाराणसी किसके लिए प्रसिद्ध था ?
Ans हाथी दाँत के लिए - तृतीय बौद्ध संगीति कहाँ हुआ ?
Ans पाटलिपुत्र में - तृतीय बौद्ध संगीति कब हुआ ?
Ans- 251 ई.पू. में - तृतीय बौद्ध संगीति किसके अध्यक्षता में हुआ ?
Ans मोग्गलिपुत तिस्स की अध्यक्षता में - गौतम बुद्ध का जन्म कब हुआ ?
Ans- 563 ई.पू. - बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति कहाँ हुई ?
Ans- बोधगया - चतुर्थ बौद्ध संगीति के आयोजन का उद्देश्य क्या था ?
Ans- बौद्ध धर्म का दो समप्रदायों में विभक्त होना - बौद्ध धर्म के दो समप्रदाय कौन कौन थे ?
Ans- हीनयान तथा महायान - बुद्धकाल में पत्थर का काम करने वाले क्या कहलाते थे ? Ans- कोहक
- गौतम बुद्ध के पिता का नाम क्या था ?
Ans – शुद्धोधन - गौतम बुद्ध के बेटे का नाम क्या था ? Ans राहुल
- बौद्ध साहित्य में प्रयुक्त संथागार शब्द का तात्पर्य क्या है ?
Ans राज्य संचालन के लिये गठित परिषद - गौतम बुद्ध का जन्म स्थान कहाँ है ?
Ans- कपिलवस्तु के लुम्बिनी नामक स्थान पर - बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश कहाँ दिया ?
Ans सारनाथ - महात्मा बुद्ध के गृह त्याग की घटना क्या कहलाती है ?
Ans- महाभिनिष्क्रमण - तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किसके शासनकाल में हुआ ?
Ans- सम्राट अशोक (मौर्य वंश) के शासनकाल में - महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम क्या था ?
Ans सिद्धार्थ